कुछ और खुद को दिखाती है,

यही है तू, फिर क्यूं,
कुछ और खुद को दिखाती है,
क्यूं फिक्र में,
अक्सर खो जाती है,
खुदा ने बख्शा है नूर,
और फितूर दोनों ही,
क्यूं नहीं हुस्न पे,
अपने इतराती है,
तेरी हसीं, खिला सकती है
गुल जहां में,
क्यूं तू फिर भी,
अक्सर ही मुस्कुराती है।।

देव

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