रेल यात्रा ….

किस्सा अभी अधूरा ही रह गया था
रात हो गई, थका था, मै सो गया था

सुबह, मेरे यार की नींद जल्दी उड़ जाती है
ट्रेन के हचकोले के साथ, उसके चिल्लाने की भी आवाज आती है

उठे, करी गपशप और मंजिल पे उतर गए
स्वर्ण नगरी में परियो के पैर पड़ गए

साथ निकले देखने मंजर ए शहर
वानर सेना ने अभी भी मचा रखा था कहर

मंदिरों की शोभा, बड़ा रखी थी मूर्ति ने
वीरान खंडहर भी बाते करते थे

शाम के डलते ही शुरू हुआ मंजर ए जश्न
दो दो घूंट लगा, सब थे नाचने में मगन

कत्थक, भांगड़ा, सालसा सब जान लिया
जो शरमाते थे, उन्होंने भी क्या नाच किया

कुछ ऐसे भी थे, जो मगन साथियों थे
कोई साथियों को छोड़, किसी के साथ ही थे

कई थके मांदे, बिस्तरों पे पड़ गए
कोई स्याह रातों में तफरी पे निकल गए

सुबह फिर हुई, नया दिन फिर निकला
मेरी किताब से एक पन्ना भी कहीं गिर गया

सुनहरी किरण ने, रोशन किया रातों को
दिन शुरू किया नया, भूला पुरानी बातो को

माता के मंदिर में, इस हद तक हिम्मत आई थी
चल पड़े सरहद पर, जैसे वहा अब भी लड़ाई थी

वीरों की भूमि को किया शत शत प्रणाम
माथे लगाया मिट्टी को, लिया जय हिन्द नाम

आज भी उस भूमि से सौंधी खुशबू है आती
रक्त वीरो से जो भूमि है सींची जाती

देव

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