मेरी पहचान, जाने कब फुर्र हो गई

कभी थी, जो मेरी ख्वाहिश,
आपा धापी में जिन्दगी की,
ना जाने कब खो गई,
मेरी पहचान, जाने कब फुर्र हो गई,

बुन कर ताने बाने,
यूं छोटे छोटे सपनो के,
बनाया था, एक ख्वाब
बदलने हकीकत में,
लड़की हूं ना, शायद
यहीं गलती थी, कि,
अपने जिन्हें कहते थे,
उन्हीं के बनाए कायदों में,
स्वाहा हो गई,
मेरी पहचान, जाने कब फुर्र हो गई।

शौक तो मुझे भी था,
कुछ कर गुजरने का,
बड़े इत्मीनान से सीखा था,
सबक जिन्दगी का,
मुसीबतें मैंने भी कोई,
कम तो नहीं झेली थी,
तब भी मेरे चेहरे पर,
हरदम एक हंसी थी,
जाने कब, वो हसीं,
दबी मुस्कुराहट बन गई,
मेरी पहचान, जाने कब फुर्र हो गई।

यूं तो, मेरा विवाह,
मेरी तमन्ना हुआ करता था,
कभी सपनो में, मुझे भी,
मेरा कुंवर दिखता था,
लक्ष्मी, कल्पना, सरोजनी सा,
रूप खुद का दिखता था,
मेरे नाम पर, गर्व करने का,
सपना मेरा भी होता था,
मगर बस पत्नी, बहू
और मां बन कर रह गई,
मेरी पहचान, जाने कब फुर्र हो गई।

अब भी, अक्सर बक्सो में,
दबे सपनो को टटोलती हूं,
क्या पाया और क्या खोया,
अक्सर हिसाब करती हूं,
सबके हिस्सो का, मुझमें
जो है, बस वही दिखता है,
मैं, खुद को, खुद में,
बस ढूंढ़ती रहती हूं,
क्यूं कि, अब मैं,
मैं कहा रह गई,
मेरी पहचान, जाने कब फुर्र हो गई।।

देव

17/10/2020, 11:51 am

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