मैं पुरुष हूं, मेरा कोई अस्तित्व नहीं
संघर्ष की हर लड़ाई में, मैं छला गया हूं
हां, सच कह रहा हूं
बचपन में पुरुष होने के नाते
रातों के अंधेरे में
बाहर भेजा गया हूं
डर मुझे भी लगता था
वीराने से,
घनघोर अंधेरा से
जंगली जानवरों से,
खूंखार दरिंदो से,
चोट में बहने वाला खून
मुझे भी उतना ही दर्द देता था
पर मुझको सब्र में
यही कहा जाता था
मर्द को दर्द नहीं होता,
कौन कहता है, ये सच नहीं
मर्द को भी दर्द होता है।
जवानी में जहा,
बहने सजने संवारने में वक़्त बिताती थी
गली की लड़कियां,
होली उत्साह से मनाती थी
हर घर में, नया उत्साह,
देखने को मिलता था
और मेरा वक़्त मेरी,
किताबों के संग गुजरता था
रातों को देर तक
सुनसान अंधेरों में पड़ता था
और सुबह जल्दी,
पिता की एक आवाज
पर उठता था,
“उठ जा, सब्जी ला, ये काम वो काम
इसे छोड़, उसे ला, कुछ तो काम कर”
और शाम को फिर यही ताना मिलता था
“आवारा घूमता है”
बस एक ही आवाज हर तरफ से आती थी
पड़ के कुछ बन जा
वरना कोई लड़की भी नहीं झाकेगी।
जैसे बस जिंदगी का बस
एक ही उद्देश्य रह गया था
जाने कहा मेरा बचपन,
जवानी की कश्मेकश में खो गया था
वक़्त अब बहुत बीत चुका है
यादे अब बहुत संगीन हो चुकी
पर कहानी यही नहीं रुकी
बीवी भी कुछ कम नहीं है
मेरे काम को काम कहा समझती है
रोज लड़ता हूं, लड़ाइयां कितनी
घर से ऑफिस, ऑफिस से घर
कुछ जीती कुछ हारी
पर ये दिखती कहा है
झुपानी भी पड़ती है
कह कर यह, कि इश्क़ है गाड़ी चलने से
और मजा आता है
रोज ऑफिस जाने में
क्यूं कि, मुझे अब भी मर्द कहा जाता है
जो टूट गया, वो जीत कहा पाता हैं
बच्चे भी यही कह जाते है
पाल नहीं सकते थे
तो पैदा क्यूं किया
अब किया है तो भुगतो
मेरी जिंदगी में अपने पैसों से रंग भर दो
इसीलिए अब भी कमाने की होड़ है
जिंदगी, जिऊ कैसे,
अपनों में ही मची है
मुझे नोचने की होड़ है
पर मुझे सब सहना होता है
सच कह रहा हूं
मर्द को भी दर्द होता है
देव
सटीक 👍