खुला परिंदा..

मेरी मौशिकी में वो खुद को दूंडती है
हर लब्ज़ में छुपी, बातें खोजती है

आइने में, जब भी खुद को निहारती है
मंद आवाज में, कुछ तो गुनगुनाती है

फ़िक्र छोड़ जहां की, सजती संवरती है
ताने उड़ा हवा में, बेखौफ गुजरती है

जीना, जो भुला दिया था कभी
रस्मो रिवाजों के खातिर
अब वो खुला परिंदा बन
आसमा को चूमती है

देव

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