बंजर जमीन पर, कंक्रीट का जंगल
बड़ी रफ्तार से बड़ता, ये शहर
आसमा को छू लेने की ख्वाहिश में
जमीन से दूर जाता, ये मंजर
नीवों को कौन पूछता है अब
खोखली होती जड़ों के ये घर
उड़ना बहुत दूर चाहता है पंछी
अपनों से ही कतरे है इनके पर
तड़प है गांव की मिट्टी की अब
बहुत दूर रह गया है वो घर
वक़्त रहते सम्हल जा यार
कहीं दूर इतना ना निकल जा
के महल में रहते हुए
कहीं रह जाए ना तू बेघर
देव