सीख…

उदास बैठे तन्हा, कुछ सोच रहा था
तभी, दरवाजे पर दस्तक हुई
देखा, मेड अाई है
दरवाजा खोला, मुस्कुराते हुए बोली
भैया, नमस्कार, बताओ,
खाने में क्या बनाना है
मैं अभी तक, सोच में ही डूबा था
उसके प्रश्न को, नहीं सुना था
और अपनी ही धुन में फिर सोफे पर बैठ गया
फिर से आवाज अाई, भैया, बताओ
सब्जी क्या बनानी है
अब ध्यान गया, उसे फ्रिज की तरफ इशारा किया
देख लो, जो है, उनमें से ही कुछ बना दो
पर , कल मिर्ची कम थी,
जरा, स्पाइसी कुछ बना दो

हल्की सी मुस्कुराहट देकर वो मुडी
और चल दी
और मेरे लिए, एक पहेली छोड़ दी

जाने कितने घरों में ये काम करती है
कहीं मिर्ची नहीं, तो कहीं स्पाइसी की डिमांड सुनती है
कहीं रोटी छोटी, तो कहीं बड़ी चाहिए
धनिया रखा था फ्रिज में, क्यूं नहीं डाला
जैसी कंपलेन भी आती है
और ये है, रोज हर घर के, मुस्कुरा के घुसती है
चुपचाप अपना काम करती है
और कोई गुस्से से बोल भी दे
तो मुस्कुरा कर जवाब देती है

माना, कभी कभी काम कंजूसी करती है
पर हमारा पेट भी वहीं भर्ती है

वो भी चंद रुपयों में, बिना शिकायत के हर रोज आती है
हर रोज वहीं बाते, वहीं शिकायते
सुनती जाती है
और मुस्कुराती है

और एक हम है
देखा जाए तो नहीं कोई गम है
लेकिन हर वक़्त परेशान रहते है
हर बात पर कंपलेन करते है
बस फ़ुरसत क्या मिली
सोचने पे मगशूल हो जाते है
किसने क्या ग़लत किया
बस कमियां निकलते है

क्यूं नहीं अपनी मेड से ये सीख लू
थोड़ा सा हस लू, थोड़ा हंसा दू
कुछ दिन है जिंदगी के
इन्हे मुस्कुरा कर निकल दू
दर्द को खुशी बना दू
जो पल बचे है, जीने के
हर पल को अपना यादगार बना दू

देव

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