इस बार फिर से मुझे, बड़ी इज्जत से घर बुलाया गया।
अपने आंगन के मंदिर में, सजाया गया।
मन्नतों की बारिश, हर जुबान से हुई।
हर बंदे ने, मेरे चरणों में शीश नवाया।
किसी ने दो, किसी ने चार दिन का मेहमान बनाया।
ढोल, ताशो, नगाढो से जश्न बनाया।
बैठा मुझे पालकी में, कंधो पर घुमाया।
और अगले साल फिर बुलाने के अरमान लेकर,
पूरे सम्मान के साथ, मेरा विसर्जन कराया।
और फिर भूल गए, मुझे छोड़ कर
उस कीचड़ के दल दल में
जो बैठाते थे सिर पे कभी
बहाते है मैला, उसी दल दल में
जरा सी हया नहीं अाई
जो हाल ये मेरा किया उन्होंने
चंद ख्वाहिशों के खातिर
क्यूं कीचड़ में छोड़ दिया मुझे उन्होंने
पूजा क्यूं था, क्यूं दी थी मुझे इज्जत इतनी
किस आधार पर करू, मन्नते पूरी उनकी
बस, सब भीड़ में चले जा रहे है
खो कर सोच अपनी, अंधे हुए जा रहे है
देव