मैं तो यू ही, भटक रहा था
अनजान थी राहें
ना मंजिलों का था पता
ना दूरियों की खबर
एक तुम थे, जिसने पहचाना,
अपनी पारखी नजर से,
कुछ तो देखा होगा,
जो मुझे अपनी छाव में बुलाया,
पकड़ा कर अंगुली अपनी
मुझे दूर तक चलाया
भटके हुए मुसाफिर को
रास्ता दिखाया
कोयला था समझ जिसे
इस जहां ने कभी
पारखी नज़रों से पहचाना
अपने हुनरमंद हाथो से तराशा
बेमौल हीरा है बनाया
अब भी जब कभी
पाता हूं चमक कम अपनी
तेरी चौखट पर आता हूं
तेरे पैरों की माटी को
अपने सिर पार चढ़ाता हूं
तुझसे कुछ लब्ज़ सुनने की आस में
तेरे संग कुछ पल बिताता हूं
तू आज भी वही है
जो कभी था
आज भी तलाशती है
नज़रे तेरी, हीरे कोयले की खदान में
आज भी झुकते है शीश
तेरी शान में
देव