कहां हो तुम, यही कहीं,

कहां हो तुम, यही कहीं,
अक्सर मिल जाती जो गलियारों में,
दिखती तो नहीं हो, मगर,
तुम्हारी महक से पहचान लेता हूं,
हां, तुम ही हो, ये जान लेता हूं।

कहां हो तुम, यही कहीं,
मेरी किताबों में, अक्सर
तुम्हारा नाम दिख जाता है,
अक्षरों में छिपा तुम्हारा,
अक्स नज़र आता है,
तुम्हारी मुस्कान से पहचान लेता हूं,
हां, तुम ही हो, ये जान लेता हूं।

कहां हो तुम, यही कहीं,
कहीं दूर से भी, जब
कोई राग सुनाई देती है,
सुर कोई भी हो, मगर
आवाज तुम्हारी होती है,
“जरा सुनना” से पहचान लेता हूं,
हां, तुम ही हो, ये जान लेता हूं।

यूं ही नहीं, कुछ तो है,
जो बहुत कुछ हो जाता है,
मेरे जेहन को, कोई तो
हर वक्त खटखटाता है,
यहीं हो तुम, यहीं तो हो।।

देव

05/09/2020, 9:25 am

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