वीर बांकुरा

माता है धन्य उसकी
जिसे कोख से जना
कर दिया देश पे न्योछावर
सीमा पर सीना ताने
जो गोली खाए
उसके मरने पे भी
पिता को है गर्व

बूढ़े मात पिता की
सेवा से बढ़कर देशधर्म
उसकी रगो में दौड़ रहा
है सच्चा रंग

मंडप में बैठी वीरांगना
फेरे लेती जब
पता है उसको एक दिन
वीर ना रहेगा उसके संग
चौखट में, बैठी उसका
इंतजार करे अक्सर
कब आयेंगे मुझसे मिलने
पिया इस घर

मेहंदी भी सूखी ना अभी
बुलावा आया
पिया चले फ़र्ज़ निभाने को
विदा का तिलक लगाया

नन्हे को देखा ना महीनों
प्यार नहीं वो दे पाया
बस चिट्ठी में को लिखा
वहीं कुछ मिला, कुछ पहुंचाया

पिता के किस्से सुन कर
बच्चे बड़े हो गए
वो भी सीमा पर जाने को
तैयार हो गए

वीर बांकुरा
सच्चा सपूत है कहलाता
यू ही नहीं वो गवा जान
अमर हो जाता

देव

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