याद है, वो मोहल्ला, जहा थी
सटे हुए मकानो की कतारे, लगता था
जाड़े में एक दूसरे से चिपक कर बैठे ही
मकानों के आगे छोटा सा चबूतरा
कहीं चमेली, कहीं मेहंदी
किसी ने मोगरा भी लगाया था
और कतार के अंत में
मस्त मुस्तैद सा खड़ा
नीम का पेड़, अपनी छाव
में मोहल्ले के बुजुर्गो को
कभी चिलचिलाती धूप से राहत देता
और कभी नटखट बच्चो के खेलने
चड़ने के लिए जगह देता
बहुत से तोते, ऋतु आने पर
उसी नीम के पेड़ पर घर करते
और हम तोता पालने की होड़ में
उन्हें पकड़ने की जिद करते
कई बार मां की डांट का शिकार
तो कभी कभी पिताजी का डंडा
करता पुकार
शाम होते ही, हम सब बच्चो का
कतार वाले मकानो को बीच में
से चीर कर जाती
चबूतरों को गले लगाने से रोकती
पतली सी सड़क
पर आ जाना
भागना दौड़ना
आस पास, ऊ च नीच,
पकड़म पकड़ाई खेलना
थक जाने पे, किसी के भी घर में
घूस कर, मटकी में से ठंडा पानी पीना
और फिर हम हो जाना
याद, है आज भी वही पुराना घर
वहीं पुराना मंजर, जहा कुछ बड़े हो गए
बच्चो में पनपती हल्की से मोहब्बत
देखी है
दूर से ही, आंखो आंखो में
कविताएं निकलती देखी है
याद है वो पान वाली अम्मी
हां, उन्हें सब अम्मी कहते थे
मुझे वो कुछ ज्यादा लाड़ करती थी
जब भी जाता था, मुझे पान के
आधे पत्ते में, मामूली सा चुना,
और दो सुपारी के टुकड़े डाल कर देती थी
अभी भी याद है वो गालियां, वो मोहल्ला
देव