मैं, अकेली हूं, तन्हा नहीं
कुछ दोस्त है, जो साथ निभाते है
इक आवाज में मेरी
दौड़ के आ जाते है
फिर क्यों मैं अपने पंखों
को कतर लू
तुम्ही बताओ, क्यूं शादी मैं कर लू
सुबह की चाय, अब खुद भी ही बनाती हूं
घर की बालकनी में, नई किताब ले
चुस्कियां लगती हूं
कभी, पड़ोस की बालकनी में
रहने वाली आंटी,
तो कभी सामने वाली बालकनी में
बॉडी बनाते लडको से आईटोनिक ले जाती हूं
कोई टोकने वाला नहीं,
देखो कितनी आजाद हूं
फिर क्यों मैं अपने पंखों
को कतर लू
तुम्ही बताओ, क्यूं शादी मैं कर लू
परवाह छोड़ आई जमाने की पीछे
देखते है, या बात करते है,
लोग मेरे बारे में क्या,
किसी नहीं हिम्मत, जो मुझसे पूछे
मैं जो हूं, मैं ही बनी हूं
और अपनी ही धुन में
जीने लगी हूं
फिर क्यों मैं अपने पंखों
को कतर लू
तुम्ही बताओ, क्यूं शादी मैं कर लू
दिल तो अब भी है, सीने में मेरे
दिल अब भी चाहता है, इश्क़ करू फिर से
कोई हो जो मुझे मुझसे ज्यादा चाहे
मेरी ख्वाहिशों को अपनाना चाहे
पर मैं जानती हूं खुशियां अकेले नहीं आती
अपने साथ गमों की गठरी भी है लाती
इसीलिए
मोहब्बत भी मैंने करी, खुद से ही है
ख्वाहिशें की फेरहिस्त, दी खुद को ही है
खुद ही खुद का शौहर, बीवी भी खुद हू
मेरे बच्चो की मां और पिता भी में खुद हूं
मेरे सपनो को जब खुद पूरा मै कर लू
फिर क्यों मैं अपने पंखों
को कतर लू
तुम्ही बताओ, क्यूं शादी मैं कर लू