आइना

यूं तो आइना, रोज ही देखती है,
मगर, काफी अरसे बाद,
आज, वो घर से बाहर जा रही है,
शायद, उससे मिलने की,
घड़ी आ रही है,

थोड़ी बैचैन, और बहुत खुश है,
माथे पर, हल्की सी शिकन है,

कभी इस दराज,
तो कभी उस दरवाजे को खोलती,
कभी पास में बनी अलमारी के,
कपड़ों को खंगेलती,

एक एक ड्रेस को,
खुद पर लगाती,
नपंदागी का अंदाज, चेहरे पे दिखा,
बिस्तर पर कपड़ों का ढेर बनाती,

सारी , सूट, जींस- टॉप, फ्यूजन,
क्या क्या ना निकाल डाला,
पिछला हफ्ता था उसने,
आज की खरीददारी में निकाला,

थकहार कर, जब बैठी,
लगी सोचने याद उसकी,
नजर पल में पड़ी,
उन्ही कपड़ों पर पड़ी, नजर उसकी,

ये तो वही सलवार कुर्ता है,
जिसे पहन, पहली बार, मिली थी उससे,
जब मिली नजर मुझसे, ना जाने
कितने ही मिनट तक, नहीं
थी हटी, नजर मुझसे,
और मैं भी, कुछ पल को,
खो सी गई थी,
शायद, उसके अहसास में,
सरोबार सी थी मैं,

कुछ ही पले, वो तैयार थी,
माथे पर छोटी से बिंदिया,
एक हाथ में कंगन, दूसरे में,
घड़ी और कुछ बंधन,

उसकी सादगी, ने उसकी
खूबसूरती और बड़ा दी थी,
उस खूबसूरती, हर लिबास,
को अमूल्य बना रही थी।।

देव

15 may 2020

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