क्या, ये दहेज नहीं कहलाता है।

दहेज, एक संकीर्ण परिभाषा बना हुए है। क्या बस लड़के के घरवालों द्वारा मांग ही दहेज है या हम सच में बहुत कुछ भूल रहे है। ये कविता आधारित है, इसी तरह की संकीर्ण मानसिकता पर, जहां एक तरफ तो हम स्त्री पुरुष समानता की बात करते है, वही दूसरी ओर अभी भी बस अच्छा कमाने वाला पुरुष ढूंढ़ते है।

दहेज, परिभाषा ही संकीर्ण है,
क्या बस, ये स्त्रियों की तौहीन है,
समझ नहीं आता, क्यूं समाज का ज्ञाता,
पुरुषों का अस्तित्व, नहीं देख पाता,

वर तो बाद में पसंद किया जाता है
पहले, उसके घर का, साइज देखा जाता है,
प्रतिष्ठा है या नहीं समाज में,
और वो कितना कमाता है,
क्या, ये दहेज नहीं कहलाता है।

हर लडकी के पिता के मुंह से,
एक प्रश्न जरूर, सुनने में आता है,
बेटा, मेरी बेटी को, खुश रखना,
और फिर गाड़ी कब लोगे, ये पूछा जाता है,
क्या, ये दहेज नहीं कहलाता है।

शादी के लंहगे की कीमत पर,
प्यार का हिसाब तोला जाता है,
ब्रैंड्स का टैग लगा है कपड़ों पर,
नज़रे चुरा कर, जाना जाता है,
क्या ये दहेज नहीं कहलाता है।

कैरियर की कंसल्टेंसी की कतार लग जाती है,
बेटा, इस शहर में कुछ नहीं,
मेट्रो में कब शिफ्ट होगे, बड़ी कंपनी
बड़ी पोजीशन कैसे और कब लोगे,
हर तरफ से सवाल यही आता है,
क्या ये दहेज नहीं कहलाता है।

देखो, पढ़ी तो बेटी भी है, मगर,
कमाने का जिम्मा तुम्हारा है,
बेटा, बीवी की कमाई खाओगे क्या,
उसके पैसे को हाथ नहीं लगाना है
क्या, ये दहेज नहीं कहलाता है।।

देव

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