मैं तो यूं ही भटक रहा था,
अनजान राहों पर,
ना कोई मंजिल, ना कारवां,
मुसाफिर भी बस,
पल भर को मिलते थे,
फिर जिंदगी वही,
तन्हा, ना कोई यहां,
ना वहां, दूर दूर तक,
विरानागी ने पैर पसारे थे
अब तो अपने भी,
लगने लगे पराए थे,
बोलता भी किस्से,
कहते है मर्द है,
सारी अंगुलियों,
मेरी तरफ ही उठती है,
और जो है करीब,
कहीं ना कहीं,
उनमें ईर्ष्या भी झलकती है,
आखिर, खुश क्यूं है
हां, खुश, मेरी हसी को देख कर,
समझ लेते है,
मैं बांट नहीं सकता,
बस इकठ्ठे करने में,
लगा रहता हूं, गम,
जो मिल जाए, उसके
किस्से सुन लेता हूं,
और तभी, एक तू मिली,
कहीं अपना सा लगा,
कुछ छूटा सा हिस्सा,
फिर से मिल गया हो,
मैं शायद पूर्ण हो गया,
अब नहीं कोई शिकवा,
जिंदगी से, ना कोई शिकायत,
किसी से, तुम हो ना,
क्यों कि, मंजिल मेरी,
तुम हो ना,
बस, तुम ही तो हो ना।।
देव